यहाँ के लोगों का मानना है कि इस युद्ध में उनकी गहरी आस्था है। युद्घ खेलने से पहले बाकायदा गाँव के मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। फिर यह युद्ध शुरू किया जाता है। दोनों ओर योद्धा हिंगोट और बचाव के लिए ढाल लेकर खड़े हो जाते हैं और शुरू हो जाता है खतरनाक खेल। एक बार शुरू होने के बाद यह युद्ध तब तक चलता है जब तक आखिरी हिंगोट खत्म न हो जाए।
बीस सालों से हिंगोट खेलने वाले कैलाश हमें बताते हैं कि यह युद्ध उनके गाँव की परंपरा है। वे कई बार घायल हो चुके हैं, लेकिन इसे खेलना छोड़ नहीं सकते। वहीं राजेंद्र कुमार बताते हैं कि वे पिछले एक माह से हिंगोट जमा करने और उसमें बारूद भरने का काम कर रहे हैं। पिछले साल हिंगोट उनके मुँह पर लगा था। इलाज के समय पाँच टाँके भी आए थे, लेकिन इन सबके बाद भी वे हिंगोट खेलना छोड़ नहीं सकते। इस साल वे दुगने उत्साह से हिंगोट खेल रहे हैं।
हिंगोट खेलने ही नहीं, बनाने की प्रक्रिया भी बेहद खतरनाक होती है। फलों में बारूद भरते समय भी छोटी-मोटी दुर्घटनाएँ हो जाया करती हैं। इसके साथ युद्ध को खेलने से पहले योद्धा जमकर शराब भी पीते हैं। इससे दुर्घटना की आशंकाएँ बढ़ जाती हैं। कई बार अप्रिय स्थिति भी खड़ी हो जाती है। इससे बचाव के लिए यहाँ भारी पुलिस बल और रैपिड एक्शन फोर्स को तैनात रखा जाता है।
यूँ हिंगोट के समय गाँव में उत्सव का माहौल रहता है। गाँववासी नए कपड़ों और नए साफों में खुश नजर आते हैं, लेकिन एकाएक होने वाले हादसे अकसर उनके मन में भी एक टीस छोड़ जाते हैं।
Tuesday, November 13, 2007
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2 comments:
एकदम नई जानकारी । कैसी कैसी परंपराएँ हैं हमारे यहाँ ।
सोच ही रहा था हिंगोट के बारे में गूगल बाबा की शरण में जाने का और आपका लेख मिला पढने को, बहुत अच्छी जानकारी!!
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